चना (bengal gram) रबी ऋतु में उगायी जाने वाली महत्वपूर्ण दलहन फसल है। चने को आमतौर पर छोलिया या बंगाल ग्राम भी कहा जाता है,
विश्व के कुल चना उत्पादन का 70 प्रतिशत भारत में होता है। चने में 21 प्रतिशत प्रोटीन 61.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट तथा 4.5 प्रतिशत वसा होती है। इसमें कैल्शियम आयरन व मैग्नीशियम की अच्छी मात्रा होती है। चने का उपयोग इसके दाने व दाने से बनायी गयी दाल के रुप में खाने के लिये किया जाता है। इसके दानों को पीसकर बेसन बनाया जाता है, जिससे अनेक प्रकार के व्यंजन व मिठाईयां बनायी जाती हैं।
हरी अवस्था में चने के दानों व पौधों का उपयोग सब्जी के रुप में किया जाता है। चने का भूसा चारे व दाना पशुओं के लिए पोषक आहार के रूप मे प्रयोग किया जाता है। चने का उपयोग औषधि के रूप में जैसे खून साफ करने के लिए व अन्य बीमारियों के लिए भी किया जाता है। चना दलहनी फसल होने के कारण वातावरण से नाइट्रोजन एकत्र कर भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ाता है।
भूमि एवं खेत की तैयारी
1. भूमि का चयन:
- मिट्टी का प्रकार: चना की खेती के लिए हल्की से मध्यम काली मिट्टी, दोमट मिट्टी या बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है।
- मिट्टी की पीएच (pH) मात्रा: 6.0 से 7.5 के बीच का पीएच स्तर सबसे अच्छा होता है। चना क्षारीय और लवणीय मिट्टी में भी उग सकता है, लेकिन अत्यधिक क्षारीयता या अम्लीयता फसल के लिए हानिकारक हो सकती है।
- जल निकासी: भूमि में अच्छा जल निकासी होना चाहिए ताकि जलभराव न हो। जलभराव से जड़ों को नुकसान पहुंच सकता है और फसल की वृद्धि प्रभावित हो सकती है।
2. भूमि की तैयारी:
- गहरी जुताई: सबसे पहले, ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना चाहिए। इससे मिट्टी का भौतिक और रासायनिक गुण बेहतर होता है और खरपतवार नियंत्रण में भी मदद मिलती है।
- हल्की जुताई: गहरी जुताई के बाद 2-3 बार हल्की जुताई करें और मिट्टी को बारीक दानेदार बनाएं। इससे बीज आसानी से अंकुरित हो सकते हैं।
- सहज मिश्रण: जुताई के बाद खेत में गोबर की खाद या अन्य जैविक खाद मिलाकर मिट्टी को समृद्ध करना चाहिए। प्रति हेक्टेयर 8-10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट डाल सकते हैं।
- समतल करना: जुताई के बाद खेत को समतल करना आवश्यक है। इससे बीज समान गहराई पर बोए जा सकते हैं और फसल की वृद्धि समान होती है।
- बीज उपचार: बीजों को रोगाणुरहित करने के लिए फफूंदनाशक या जैविक उपचार का प्रयोग करें। इससे बीज के अंकुरण में वृद्धि होगी और रोगों से सुरक्षा मिलेगी।
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3. खाद एवं उर्वरक प्रबंधन:
- फॉस्फोरस और पोटाश: चना की अच्छी वृद्धि के लिए फॉस्फोरस और पोटाश का प्रयोग आवश्यक है। बोवाई से पहले प्रति हेक्टेयर 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60-75 किलोग्राम फॉस्फोरस, और 40-50 किलोग्राम पोटाश डालें।
- जिप्सम: जिन क्षेत्रों में मिट्टी में सल्फर की कमी होती है, वहां प्रति हेक्टेयर 250 किलोग्राम जिप्सम का उपयोग लाभकारी होता है।
चना बीज उपचार प्रक्रिया
1. फफूंदनाशक से बीज उपचार
- उपयोग किए जाने वाले रसायन: कार्बेन्डाजिम (Carbendazim), मैन्कोजेब (Mancozeb), या थाइरम (Thiram)।
- उपयोग की मात्रा: 1.5 से 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज।
- उपचार की प्रक्रिया:
- बीज को एक साफ बर्तन में रखें।
- कार्बेन्डाजिम, मैन्कोजेब या थाइरम में से किसी एक फफूंदनाशक को बीजों पर छिड़कें।
- बीजों को अच्छी तरह मिलाएं ताकि फफूंदनाशक की एक समान परत सभी बीजों पर चढ़ जाए।
- यह उपचार जड़ गलन और उखटा रोग जैसी बीमारियों से बचाव करता है।
2. कीटनाशक से बीज उपचार
- उपयोग किए जाने वाले रसायन: क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी (Chlorpyrifos 20 EC) या एन्डोसल्फॉन 35 ईसी (Endosulfan 35 EC)।
- उपयोग की मात्रा: 8 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम बीज।
- उपचार की प्रक्रिया:
- बीजों को कीटनाशक के घोल में डालें और अच्छी तरह मिलाएं।
- यह उपचार दीमक और अन्य भूमिगत कीटों से बचाव के लिए किया जाता है।
- उपचारित बीजों को छांव में सुखाएं।
3. राइजोबियम कल्चर और फास्फोरस घुलनशील जीवाणु से उपचार
- उपयोग की मात्रा: एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए तीन पैकेट राइजोबियम कल्चर और तीन पैकेट फास्फोरस घुलनशील जीवाणु।
- उपचार की प्रक्रिया:
- एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ को गर्म करके घोल तैयार करें और इसे ठंडा कर लें।
- इस घोल में राइजोबियम कल्चर और फास्फोरस घुलनशील जीवाणु मिलाएं।
- इस मिश्रण में बीजों को डालकर अच्छी तरह से मिलाएं ताकि सभी बीजों पर यह मिश्रण चढ़ जाए।
- उपचारित बीजों को छांव में सुखाएं और तुरंत बुवाई करें।
4. बीज को छाया में सुखाना
- उपचार के बाद बीजों को छाया में अच्छी तरह से सुखाना चाहिए ताकि बीजों पर लगी हुई परतें सूख जाएं और बीज बुवाई के लिए तैयार हो जाएं।
- बीजों को लंबे समय तक खुले में नहीं छोड़ना चाहिए, उन्हें शीघ्र बुवाई कर देना चाहिए।
चना बोने का उचित समय
रबी चने की बुवाई के लिए उचित समय अक्टूबर के मध्य से नवंबर के अंत तक का होता है। इस समय पर बुवाई करने से निम्नलिखित लाभ मिलते हैं:
- मिट्टी में पर्याप्त नमी: अक्टूबर-नवंबर के दौरान मिट्टी में रबी फसल के लिए पर्याप्त नमी होती है, जो बीज के अंकुरण और पौधों की शुरुआती वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण है।
- ठंडक का अनुकूल प्रभाव: इस समय पर बुवाई करने से पौधे को ठंडक मिलती है, जो चने की फसल के लिए अनुकूल होती है। ठंडे मौसम में पौधों की वृद्धि अच्छी होती है और कीट व रोगों का प्रकोप भी कम रहता है।
- सर्दी के मौसम का पूरा लाभ: इस अवधि में बुवाई करने से फसल को सर्दियों का पूरा लाभ मिलता है, जिससे पैदावार बेहतर होती है।
क्षेत्रीय समय में अंतर
- उत्तर भारत: उत्तर भारत में रबी चने की बुवाई का सही समय अक्टूबर के अंत से नवंबर के मध्य तक होता है।
- दक्षिण भारत: दक्षिण भारत में बुवाई का समय थोड़ा पहले, अक्टूबर के पहले या दूसरे सप्ताह में होता है।
सही समय पर बुवाई से चना की फसल की अच्छी गुणवत्ता और उपज सुनिश्चित की जा सकती है।
उचित बीज दर एंव बुआई
चना की फसल से अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए खेत में प्रति इकाई पौधों की उचित संख्या होना बहुत आवश्यक है। पौधों की उचित संख्या सुनिश्चित करने के लिए बीज दर, पंक्ति से पंक्ति की दूरी, और बीज की बुवाई की गहराई की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
1. बीज दर
- बारानी खेती/शुष्कभूमि (Dryland): बीज दर: 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
- सिंचित क्षेत्र: बीज दर: 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
2. बीज की बुवाई की गहराई
- बारानी/शुष्कभूमि (Dryland): बीज की गहराई: 7 से 10 सेंटीमीटर तक होनी चाहिए।
- सिंचित क्षेत्र : बीज की गहराई: 5 से 7 सेंटीमीटर।
3. पंक्ति से पंक्ति की दूरी
- पंक्ति से पंक्ति की दूरी: 45 से 50 सेंटीमीटर।
इन उपायों का पालन करके चना की फसल में पौधों की उचित संख्या सुनिश्चित की जा सकती है, जिससे अधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
खाद एवं उर्वरक
चना की फसल में उचित खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना उपज और फसल की गुणवत्ता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सही मात्रा और समय पर उर्वरकों का उपयोग फसल की वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करता है।
1. खाद का उपयोग
- गोबर की खाद:
- मात्रा: 10-15 टन प्रति हेक्टेयर।
- समय: खेत की अंतिम जुताई के समय गोबर की खाद को मिट्टी में अच्छी तरह मिलाएं।
- कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट:
- मात्रा: 5-7 टन प्रति हेक्टेयर।
- कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट का उपयोग मिट्टी की संरचना को सुधारता है और पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करता है।
2. उर्वरकों का उपयोग
- नाइट्रोजन (N):
- मात्रा: 20 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर।
- नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुवाई के समय और आधी मात्रा बुवाई के 30-35 दिन बाद दी जानी चाहिए।
- फॉस्फोरस (P):
- मात्रा: 40-60 किलोग्राम फॉस्फोरस प्रति हेक्टेयर।
- फॉस्फोरस का उपयोग बुवाई के समय ही करना चाहिए।
- यह पौधों की जड़ वृद्धि और फूल-फल बनने की प्रक्रिया में मदद करता है।
- पोटाश (K):
- मात्रा: 20-30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर।
- पोटाश की आवश्यकता आमतौर पर फॉस्फोरस के साथ ही होती है और इसे बुवाई के समय मिट्टी में मिलाना चाहिए।
- जिंक सल्फेट:
- मात्रा: 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर।
- जिंक की कमी वाले क्षेत्रों में जिंक सल्फेट का उपयोग आवश्यक है।
3. अंतरवर्ती खाद डालने की प्रक्रिया
- चना की फसल में दूसरी खाद या उर्वरक डालने का समय बुवाई के 30-35 दिन बाद होता है।
- नाइट्रोजन और पोटाश की दूसरी मात्रा इस समय दी जानी चाहिए, जिससे पौधों की वृद्धि और फसल की गुणवत्ता में सुधार होता है।
4. खाद एवं उर्वरक के उपयोग में सावधानियां
- उर्वरकों का सही मात्रा में और सही समय पर उपयोग करना चाहिए।
- अधिक मात्रा में उर्वरकों का उपयोग फसल को नुकसान पहुंचा सकता है।
- मिट्टी परीक्षण के आधार पर उर्वरकों की मात्रा तय करें।
इन उपायों का पालन करके चना की फसल से उच्च गुणवत्ता और अधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
चने की सिंचाई
चने की सिंचाई के लिए निम्नलिखित बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए:
1. बारानी/शुष्क क्षेत्रों में
चने की खेती सामान्यत: संचित नमी में की जाती है। यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, तो एक या दो सिंचाई की जा सकती है।
- पहली सिंचाई: बुवाई के 40-50 दिनों बाद।
- दूसरी सिंचाई: फलियों के आने पर।
2. सिंचित क्षेत्रों में
2 से 3 सिंचाई पर्याप्त होती हैं।
- पहली सिंचाई: बुवाई के 35-40 दिन बाद।
- दूसरी सिंचाई: 70-80 दिन बाद।
- अंतिम सिंचाई: 105-110 दिन बाद।
3. यदि दो सिंचाई की सुविधा है
- पहली सिंचाई: बुवाई के 40-50 दिनों बाद।
- दूसरी सिंचाई: 80-85 दिनों बाद।
4. यदि केवल एक सिंचाई की सुविधा है
- सिंचाई: बुवाई के 60-65 दिनों बाद।
ध्यान दें: खेत में अधिक समय तक पानी भरा नहीं रहना चाहिए क्योंकि इससे फसल को नुकसान हो सकता है। अनआवश्यक पानी देने से फसल का विकास और पैदावार कम हो जाती है। यह फसल ज्यादा पानी सहन नहीं कर सकती, इसके लिए अच्छे जल निकास का भी प्रबंध करें।
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
चने की फसल में अनेक प्रकार के खरपतवार जैसे बथुआ, खरतुआ, मोरवा, प्याजी, मोथा, दूब इत्यादि उगते हैं। ये खरपतवार फसल के पौधों के साथ पोषक तत्वों, नमी, स्थान एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करके उपज को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त खरपतवारों के द्वारा फसल में अनेक प्रकार की बीमारियों एवं कीटों का भी प्रकोप होता है जो बीज की गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं। खरपतवारों द्वारा होने वाली हानि को रोकने के लिए समय पर नियंत्रण करना बहुत आवश्यक है।
चने की फसल में दो बार गुड़ाई करना पर्याप्त होता है:
- प्रथम गुड़ाई: फसल बुवाई के 30-35 दिन पश्चात्
- दूसरी गुड़ाई: 50-55 दिनों बाद
यदि मजदूरों की उपलब्धता न हो तो:
- फसल बुवाई के तुरन्त पश्चात् पैंडीमेथालीन की 2.50 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर खेत में समान रूप से मशीन द्वारा छिड़काव करना चाहिये।
- फिर बुवाई के 30-35 दिनों बाद एक गुड़ाई कर देनी चाहिये।
इस प्रकार चने की फसल में खरपतवारों द्वारा होने वाली हानि की रोकथाम की जा सकती है।
कीट एवं बीमारी नियंन्त्रण
चने की फसल में अनेक प्रकार के कीटों एवं बीमारियों का प्रकोप होता है जिनका उचित समय पर नियंत्रण करना बहुत आवश्यक है।
दीमक, कटवर्म एवं वायर वर्म
यदि बुवाई से पहले एन्डोसल्फॅान, क्यूनालफोस या क्लोरोपाइरीफोस से भूमि को उपचारित किया गया है तथा बीज को क्लोरोपाइरीफोस कीटनाशी द्वारा उपचारित किया गया है तो भूमिगत कीटों द्वारा होने वाली हानि की रोकथाम की जा सकती है। यदि खड़ी फसल में दीमक का प्रकोप हो तो क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी या एन्डोसल्फान 35 ईसी की 2 से 3 लीटर मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से सिंचाई के साथ देनी चाहिये। ध्यान रहे दीमक के नियंत्रण हेतु कीटनाशी का जड़ों तक पहुँचना बहुत आवश्यक है।
कटवर्म की लटें ढेलों के नीचे छिपी होती हैं तथा रात में पौधों को जड़ों के पास काटकर फसल को नुकसान पहुँचाती हैं। कटवर्म के नियंत्रण हेतु मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत या क्यूनालफोस 1.50 प्रतिशत या एन्डोसल्फॉन् 4 प्रतिशत चूर्ण की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव शाम के समय करना चाहिये। ट्राईक्लोरोफॉन 5 प्रतिशत चूर्ण की 25 कि.ग्रा. मात्रा को भी प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव किया जा सकता है।
फली छेदक
यह कीट प्रारम्भिक अवस्था में पत्तियों को खाकर फसल को हानि पहुँचाता है। फली आने पर उसमें छेद बनाकर अन्दर घुस जाता है तथा दाने को खाकर फली को खोखला बना देता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु फसल में फूल आने से पहले तथा फली लगने के बाद एन्डोसल्फॉन 4 प्रतिशत या क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत चूर्ण की 20-25 कि.ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकनी चाहिये। पानी की उपलब्धता होने पर मोनोक्रोटोफॉस 35 ईसी या क्यूनॉलफोस 25 ईसी की 1.25 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से फसल में फूल आने के समय छिड़काव करना चाहिये।
झुलसा रोग (ब्लाइट)
यह बीमारी एक फफूंद के कारण होती है। इस बीमारी के कारण पौधों की जड़ों को छोड़कर तने, पत्तियों एवं फलियों पर छोटे गोल तथा भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। पौधे की आरम्भिक अवस्था में जमीन के पास तने पर इसके लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। पहले प्रभावित पौधे पीले और फिर भूरे रंग के हो जाते हैं तथा अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजेब नामक फफूंदनाशी की एक कि.ग्रा. या घुलनशील गन्धक की एक कि.ग्रा. या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 कि.ग्रा. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 10 दिनों के अन्तर पर 3-4 छिड़काव करने पर्याप्त होते हैं।
उखटा रोग (विल्ट)
इस बीमारी के लक्षण जल्दी बुवाई की गयी फसल में बुवाई के 20-25 दिनों बाद स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। देरी से बोई गयी फसल में रोग के लक्षण फरवरी और मार्च में दिखाई देते हैं। पहले प्रभावित पौधे पीले रंग के हो जाते हैं तथा नीचे से ऊपर की ओर पत्तियाँ सूखने लगती हैं और अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के नियन्त्रण हेतु भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिये। यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो बीमारी के लक्षण दिखाई देते ही सिंचाई कर देनी चाहिये। रोग रोधी किस्मों जैसे आरएसजी 888, सी 235 तथा बीजी 256 की बुवाई करनी चाहिये।
किट्ट (रस्ट)
इस बीमारी के लक्षण फरवरी और मार्च में दिखाई देते हैं। पत्तियों की ऊपरी सतह पर, फलियों, पर्णवृतों तथा टहनियों पर हल्के भूरे-काले रंग के उभरे हुए चकत्ते बन जाते हैं। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेन्कोजेब नामक फफूंदनाशी की एक कि.ग्रा. या घुलनशील गन्धक की एक कि.ग्रा. या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 कि.ग्रा. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 10 दिनों के अन्तर पर 3-4 छिड़काव करने पर्याप्त होते हैं।
पाले से फसल का बचाव
चने की फसल में पाले के प्रभाव के कारण काफी क्षति हो जाती है। पाले के पड़ने की सम्भावना दिसम्बर-जनवरी में अधिक होती है। पाले के प्रभाव से फसल को बचाने के लिए फसल में गन्धक के तेजाब की 0.1 प्रतिशत मात्रा यानि एक लीटर गन्धक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। पाला पड़ने की सम्भावना होने पर खेत के चारों ओर धुआं करना भी लाभदायक रहता है।
फसल चक्र
भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने एवं फसल से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए उचित फसल चक्र की विशेष भूमिका होती है। असिंचित क्षेत्र में पड़त-चना (एक वर्षीय), पड़त-चना-पड़त-सरसों (द्विवर्षीय), तथा पड़त-चना-पड़त-सरसों-पड़त-चना (तीन वर्षीय) फसल चक्र अपनाये जा सकते हैं।
बीज उत्पादन के लिए निर्देश
किसान चने के बीज का उत्पादन अपने खेत पर आसानी से कर सकता है। चने के बीज उत्पादन के लिए ऐसे खेत का चुनाव करना चाहिये जिसमें पिछले वर्ष चने की फसल न उगायी गई हो। खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिये तथा खेत के चारों ओर 10 से 20 मीटर की दूरी तक चने की फसल न उगायी गई हो। अच्छी प्रकार से तैयार किये गये खेत में फसल की बुवाई उचित समय पर करनी चाहिये। भूमि में खरपतवार नहीं रहने चाहिये तथा पाटा लगाकर भूमि समतल कर देनी चाहिये। प्रमाणित बीज या आधार बीज की बुवाई पंक्तियों में कर देनी चाहिये।
बुवाई से पहले खेत में उचित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिये। खेत में समय समय पर सिंचाई करनी चाहिये तथा खरपतवार, कीट एवं बीमारियों का समय पर नियंत्रण करना चाहिये। खेत में अवांछनीय एवं रोगग्रस्त पौधों को फूल आने से पहले निकाल देना चाहिये। फूल आने के बाद पौधों को रंग एवं आकार तथा पौधों में शाखाओं के आधार पर, पकने की अवस्था में फलियों के गुणों जैसे लम्बाई, रंग इत्यादि के आधार पर पहचान कर निकाल देना चाहिये।
जब फसल पूरी तरह पक जाये अर्थात् फलियाँ पीली पड़ जाएं व दाने कड़े हो जाएं तो खेत के चारों ओर 5 से 10 मीटर खेत छोड़कर फसल की कटाई कर लेनी चाहिये। काटी गई फसल को अच्छी तरह से साफ किये गये खलिहान में अलग से सुखाना चाहिये। जब फसल अच्छी प्रकार से सूख जाए तो फसल को थ्रैशर द्वारा या डंडे से पीट कर दाने को भूसे से अलग कर देना चाहिये। दानों को साफ करके अच्छी प्रकार से सूखाकर जब नमी 8 से 9 प्रतिशत रह जाए तो स्वस्थ एवं अच्छे आकार के दानों का ग्रेडिंग कर लेना चाहिये। ग्रेडिंग किये गये दानों को कीटनाशक जैसे एल्यूमिनियम फास्फाइड की गोली या ईडीबी एम्प्यूल को तोड़ कर या मैलाथियोन 5 प्रतिशत चूर्ण या फेनवलरेट चूर्ण की 250 ग्राम प्रति क्विंटल की दर से मिलाकर धातु की कोठी, पक्की कोठी या पूसा कोठी में भरकर अच्छी प्रकार से बंद करके सुरक्षित स्थान पर रखकर भंडारित करना चाहिये या मैलाथियोन या डेकामैथ्रिन के एक प्रतिशत घोल से उपचारित नई बोरियों में सुरक्षित स्थान पर रखकर भंडारित करना चाहिये। इस प्रकार से उत्पादित बीज को किसान अगले वर्ष बुवाई के लिए प्रयोग कर सकते हैं।
फसल की कटाई एवं गहाई
फसल जब अच्छी प्रकार पक जाए तो कटाई करनी चाहिये। जब पत्तियाँ व फलियाँ पीली व भूरे रंग की हो जाएं तथा पत्तियाँ गिरने लगे एवं दाने सख्त हो जाएं तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिये। कटाई की गई फसल जब अच्छी प्रकार सूख जाए तो थ्रैशर द्वारा दाने को भूसे से अलग कर लेना चाहिये तथा अच्छी प्रकार सुखाकर सुरक्षित स्थान पर भंडारित कर लेना चाहिये।